Sports Tak Special : क्रिकेटर्स और फुटबॉलर्स की जर्सी में होने वाले बदलावों की दिलचस्‍प कहानी

Sports Tak Special : क्रिकेटर्स और फुटबॉलर्स की जर्सी में होने वाले बदलावों की दिलचस्‍प कहानी

नई दिल्‍ली. क्रिकेट और फुटबॉल... दुनिया के दो ऐसे खेल हैं जिनमें फैंस का इमोशन अलग ही मुकाम पर दिखता है. इन खेलों को जितनी पहचान इन्‍हें खेलने वाले खिलाडि़यों ने दिलाई, फैंस पर उतना ही प्रभाव खिलाडि़यों द्वारा पहनने वाली जर्सी का भी रहा है. क्रिकेट और फुटबॉल इन दोनों खेलों में खिलाडि़यों की जर्सी का भी अंदाज जुदा होता है. वहीं फुटबॉल में इस्तेमाल होने वाले जूते, मोजे, पैंट, टीशर्ट को किट्स कहा जाता है. जबकि क्रिकेट में भी कुछ ऐसा ही होता है जिसमें खिलाड़ियों की लोवर, टीशर्ट, कैप शामिल हैं. हालांकि इन किट्स की सबसे अहम चीज जर्सी को ही माना जाता है जिससे खिलाड़ियों की पहचान होती है. जर्सी पर देश का नाम, रंग, डिजाइन, नंबर, खिलाड़ी का नाम होता है. इसी से पहचाना जाता है कि कौन सा खिलाड़ी किस जर्सी में गर्दा मचा रहा है. कलर जर्सी पहनने की शुरुआत 19वीं सदी में हुई. ऐसे में कैसे समय के साथ ये जर्सी बदलती गईं, फुटबॉल में क्या अलग था और क्रिकेट की जर्सी में क्‍या परिवर्तन देखने को मिले, आज की पड़ताल में इसी दिलचस्‍प मुद्दे की बात होगी. 

क्रिकेट की जर्सी में बदलाव
पहले बात क्रिकेट की करते हैं. अगर भारतीय क्रिकेट की जर्सी के सफर पर निकलें तो साल 1980 से जर्सी में समय के साथ बदलाव होता चला गया. हल्‍के नीले रंग से लेकर गहरे नीले रंग, अलग डिजाइन, जर्सी पर धारियां ये सबकुछ किट चेंज के बदलावों में शुमार पहलू बेहद अहम हैं. 1990 के दशक में किट में बदलाव काफी ज्यादा हुआ करते थे. सीरीज दर सीरीज टीमों की जर्सी को बदल दिया जाता था. इसके बाद साल 2000 के आसपास किट पर स्पॉन्सर्स का नाम भी नजर आने लगा. लेकिन रंगीन जर्सी की असल शुरुआत साल 1985 में हुई.

साल 1985 वर्ल्ड चैंपियनशिप ऑफ क्रिकेट में भारतीय टीम ने लाइट ब्लू और पीले रंग के कॉम्बिनेशन वाली जर्सी चुनी. ये काफी साधारण थी और इस पर सैंस का स्पॉन्सर, लोगो और खिलाड़ियों के नाम थे. लेकिन असली कमाल साल 1992 में हुआ जब फैंस ने खिलाड़ियों की जर्सी को खूब पसंद किया. इसके रेप्लिका वर्जन को आज भी खूब पसंद किया जाता है और फैंस इसे हर जगह ढूंढते हैं. 

 

जर्सी का डार्क ब्लू शेड उस साल साउथ अफ्रीकी दौरे तक रहा था. जर्सी पर ब्लू और पीले रंग की धारियां थीं. हालांकि साल 1994 में इसमें बदलाव हुआ और टीम इंडिया पीले और नेवी ब्लू किट में नजर आई. इसका ऊपरी हिस्सा जहां पीले रंग का था वहीं निचला हिस्सा नेवी ब्लू रंग का.

 

पीले और नीले का कॉम्बिनेशन
साल 1994 में सचिन तेंदुलकर ने अपना पहला वनडे शतक लगाया था. ये सिंगर वर्ल्ड सीरीज थी और इसमें भी टीम की जर्सी काफी अलग थी. इस बार भारतीय टीम ने हल्‍के रंग का इस्तेमाल किया था. जर्सी का ऊपरी हिस्सा जहां हल्‍के पीले रंग का था. वहीं निचला हिस्सा हल्‍के नीले रंग का. लेकिन साल दर साल सबकुछ बदलता चला. हालांकि इस दौरान भारतीय जर्सी में गहरे रंग और हल्के रंग का इस्तेमाल कम नहीं हुआ. समय के साथ जर्सी बदली, उसके डिजाइन बदले लेकिन नीला रंग कभी नहीं हटा. चाहे गहरा नीला रंग हो या हल्का नीला रंग. 1995 में एक बार फिर भारतीय टीम की जर्सी बदली और इस बार सबकुछ नेवी ब्लू रंग का हो गया. लेकिन ये जर्सी थोड़ी अलग थी क्योंकि इसमें खिलाड़ियों की बांह पर बड़ा सा अशोक चक्र था.

 

1996 में जारी रहा बदलाव का दौर
साल 1996 का वर्ल्ड कप ऐसा था जिसमें टीम इंडिया वापस अपने पुराने रंग पर आ गई थी. जी हां. पीले और हल्‍के नीले रंग का कॉम्बिनेशन. ये टीम के लिए फिक्स डिजाइन हो गया था. टीम की पूरी जर्सी हल्के नीले रंग की थी. जबकि नाम, छाती पर पट्टी और कॉलर पीले रंग का था. लेकिन बदलाव न हो ऐसा हो नहीं सकता और साल 1997 में फिर एक बार श्रीलंका के खिलाफ टीम ने अपनी जर्सी में बदलाव किया. इस बार टीम थोड़ा गहरे रंग में नजर आई. सबकुछ हल्का नीला था लेकिन टीम की छाती और कंधों पर नारंगी रंग था और वो भी गहरा.

 

जर्सी पर झंडे का रंग
साल 1998 सीरीज में टीम इंडिया ने भारत के झंडे वाली जर्सी पहनी. इसमें फिर सबकुछ लाइट ब्लू था लेकिन टीम के दोनों कंधों की तरफ तिरंगा था. लेकिन 1999 वर्ल्ड कप जर्सी ने काफी सुर्खियां बटोरी. ये जर्सी अब तक की बेस्ट जर्सी मानी जाती है. लाइट ब्लू रंग और बीसीसीआई का लोगो. लोगों का रंग पीला और विल्स का स्पॉन्सर. द्रविड़, सचिन और गांगुली इस जर्सी में अलग ही नजर आते थे. लेकिन साल 2000 और 2001 में टीम की जर्सी में फिर बदलाव हुआ और इस बार टीम थोड़े गहरे नीले रंग पर शिफ्ट हुई. 2002 चैंपियंस ट्रॉफी में भारतीय टीम की जर्सी बेहद आम थी. आईसीसी और स्पॉन्सर विवाद के चलते किट्स पर लोगो नहीं गया और इसके चलते टीम ने नीले रंग की जर्सी पहनी जिसपर बीच में पीले रंग में इंडिया लिखा होता था.

 

2003 वर्ल्ड कप और स्पॉन्सर विवाद
साल 2003 वर्ल्ड कप के दौरान भी सहारा इंडिया और साउथ अफ्रीकी एयरवेज के बीच विवाद हुआ जिसके बाद टीम इंडिया की जर्सी से सहारा हटा दिया गया. उस दौरान भारत का स्पॉन्सर सहारा ही था. टीम को सहारा का नाम छपवाने से मना किया गया था. लेकिन साल 2004 के ऐतिहासिक पाकिस्तान दौरे पर सहारा की वापसी हो गई और टीम नीले रंग की जर्सी और सामने तिरंगे के साथ नजर आने लगी. इसपर पीले रंग में भारत और ऊपर सहारा लिखा हुआ था.

 

भारत को टी20 चैंपियन बनाने वाली जर्सी
साल 2007 वर्ल्ड टी20 में भारत ने लाइटर शेड वाली जर्सी पहनी. ये जर्सी सबसे लाइट रंग की थी. बीच में पीले रंग में भारत था और साइड में भारत का झंडा. इस जर्सी की बदौलत टीम ने साल 2007 टी20 वर्ल्ड कप जीता लेकिन 2009 में इस जर्सी को अलविदा कह दिया गया. न्यूजीलैंड दौरे के लिए टीम की जर्सी में एक बार फिर बदलाव हुआ और टीम लाइट ब्लू से डार्क ब्लू की तरफ शिफ्ट हो गई. हालांकि ये जर्सी 2007 वनडे वर्ल्ड कप की याद दिलाती है जिसमें टीम इंडिया को बांग्लादेश ने हराकर वर्ल्ड कप से बाहर कर दिया था.

 

2011 वर्ल्ड चैंपियन बनाने वाली जर्सी
साल 2011 वर्ल्ड कप की जर्सी भी कोई भुला नहीं पाता. ये जर्सी गहरे नीले रंग की थी. टीम का नाम ऑरेंज कलर में था. जबकि साइड में सैफरन, हरा और सफेद रंग की स्ट्रिप थी. ये जर्सी फैंस ने बेहद ज्यादा पसंद की थी. लेकिन 2013 में टीम की जर्सी को नाइकी का स्पॉन्सर मिला और फिर टीम एक अलग लुक में नजर आई. सहारा की वापसी हुई और नाइकी का लोगो. जर्सी का रंग था गहरा नीला. लेकिन डिजाइन बेहद अलग. ये जर्सी 100 प्रतिशत रिसाइकल्स पॉलिस्टर से बनी थी.

 

33 प्लास्टिक बोतल से बनी जर्सी
साल 2014 में खिलाड़ियों ने मेलबर्न क्रिकेट ग्राउंड के रूफ पर खड़े होकर जर्सी लॉन्च की थी. इस जर्सी की कहानी यही थी कि इसे बनाने के लिए 33 प्लास्टिक बोतल का इस्तेमाल किया गया था. लेकिन फिर ओप्पो टीम इंडिया का नया स्पॉन्सर बना. नाइकी ने यहां टीम को नई टेक्नोलॉजी दी. इसमें 4डी क्विकनेस और जीरो डिस्ट्रैक्शन्स थे. 4डी क्विकनेस फीचर की मदद से खिलाड़ी जिस दिशा में भागते थे या मुड़ते थे उनका एक्शन काफी तेज होता था. यानी जर्सी शरीर के बीच में नहीं फंसती थी. वहीं जीरो डिस्ट्रैक्शन की मदद से आपका ध्यान अपनी ही टीम के खिलाड़ियों की जर्सी पर नहीं जाता था और आप आसानी से गेम पर ध्यान रखकर मैच खेल सकते थे.

 

पहली बार अवे जर्सी
साल 2019 वर्ल्ड कप के दौरान भारतीय टीम की जर्सी में ज्यादा बदलाव नहीं हुआ. डार्क रंग में जर्सी को लॉन्च किया गया जहां स्पॉन्सर ओप्पो था. पीले रंग में इंडिया लिखा था और नाइकी स्पॉन्सर था. लेकिन इस बीच अवे जर्सी को पहली बार लॉन्च किया गया. इसे लॉन्च विराट कोहली ने किया था. इंग्लैंड की स्काई ब्लू रंग की जर्सी के चलते इसे लॉन्च किया गया था ताकि दोनों टीमों की जर्सी एक तरह न लगे. नाइकी पहली बार ऑरेंज रंग की किट लेकर आई थी.

 

टेस्ट जर्सी पर नंबर

साल 2019 ऐसा साल था जब टेस्ट क्रिकेट के इतिहास में जर्सी बदलने वाली थी. साल 2019 में पहली बार ये ऐलान हुआ कि पूरी तरह सफेद रंग की जर्सी पर भी अब नंबर होंगे. इसके बाद टेस्ट जर्सी जो सफेद और बोरिंग नजर आती थी. इस नियम के बाद ये भी दिलचस्प दिखने लगी और सभी देश इस तरह की जर्सी पहनने लगे.

 

पुरानी यादें ताजा हुईं
फिर टीम इंडिया ने साल 1992 वर्ल्ड कप ऑक्सफर्ड किट वाले रंग की वापसी करवाई. बायजूस टीम का नया स्पॉन्सर था और खिलाड़ियों के कंधों पर भारत के झंडे का स्ट्रिप था. नाम ऑरेंज रंग में था जबकि जर्सी नेवी ब्लू थी. इसके अलावा नाइकी की जगह एमपीएल ने ली ली थी. इस जर्सी को रेट्रो जर्सी के नाम से जाना जाता था.

 

मौजूदा समय में भारतीय टीम जो जर्सी पहनती है वह नेवी ब्लू है. लेकिन इस बार भारतीय टीम की जर्सी का रंग ब्लू है. पिछले वर्ल्ड कप की जर्सी को बिलियन चीयर्स जर्सी नाम दिया गया था और इसका पैटर्न टीम इंडिया के फैंस से प्रेरित था. इस जर्सी का रंग गहरा नीला था. लेकिन इस बार की जर्सी वन ब्लू जर्सी के नाम से लॉन्च की गई है. इस जर्सी के बाजू को गहरे नीले रंग में कर दिया गया है जबकि बीच का रंग हल्का नीला है. वहीं इसपर बीसीसीआई लोगों का थोड़ा डिजाइन भी है.

 

फुटबॉल जर्सी में बदलाव

फुटबॉल एसोसिएशन के नियम की बात करें तो नियम-4 के मुताबिक एक फुटबॉल खिलाड़ी की किट को तभी पूरा माना जाता है जब उसके पास शर्ट (स्लीव्स के साथ), मोजे, हाफ पैंट, बूट्स और शिन पैड्स हों. इस नियम ने ही फुटबॉल में जर्सी की शुरुआत करवाई थी. इसके तहत गोलकीपर्स यहां ट्रैकसूट में गोलकीपिंग कर सकते थे. वहीं किट में कुछ ऐसा नहीं होना चाहिए जिससे खतरा हो. इसके अलावा इस नियम की सबसे खास बात ये थी कि स्ट्रिप का रंग एक जैसा नहीं होना चाहिए. वहीं जर्सी पर कुछ ऐसा नहीं लिखा होना चाहिए जिससे विवाद हो. फुटबॉल में भी समय के साथ जर्सी में बदलाव होते चले गए. किट्स को इस तरह तैयार किया जाता था जिससे टीम और क्लब्स की पहचान हो. जब पहली बार फुटबॉल की शुरुआत हुई तो लोग कोई भी कपड़ा पहनकर खेलते थे. लेकिन आज जर्सी से जो कमाई हो रही है उसकी बात ही अलग है.

 

स्ट्रिप का आगाज
19वीं सदी में ज्यादातर खिलाड़ी मैदान पर पट्टी वाली जर्सी पहनकर उतरते थे. जिसे स्ट्रीप भी कहा जाता है. ये जर्सी फुल होती थीं. इन्हें ठंड को ध्यान में रखकर बनाया जाता था. इसके साथ सर्दी वाले पैंट, भारी जूते भी होते थे. ऐसे में एक ही जर्सी की डिजाइन में हर टीम का खिलाड़ी होता था जिससे फैंस, मैच ऑफिशियल्स और खिलाड़ियों को भी आपस के एक-दूसरे की पहचान करने में दिक्कत होती थी.

 

1867 में बड़ा बदलाव
इसके बाद साल 1867 में बड़ा बदलाव हुआ जब ये नियम बना कि हर टीम की जर्सी एक-दूसरे से अलग होगी. इसके बाद जर्सी के अलग-अलग रंगों को खेल के भीतर एंट्री मिली. मतलब अगर आपकी टीम इंग्लैंड की है तो आप इंग्लैंड को दर्शाने वाले रंग की जर्सी पहनेंगे. वहीं जिस शहर से आप आते वहां की रंग की जर्सी आप पहन सकते हैं. इस दौरान फुल पैंट को भी हटा दिया गया और हाफ पैंट को लाया गया. खिलाड़ियों ने शिन पैड्स पहनने शुरू कर दिए. लेकिन इन किट्स की खास बात फुटबॉल के जूते थे जो हेवी लेदर से बनाए जाते थे. बाद में ये स्टड्स के नाम से मशहूर हुए.

 

घुटने नहीं दिखने चाहिए
20वीं सदी की शुरुआत में कुछ खिलाड़ियों ने घुटनों के ऊपर हाफ पैंट पहनने शुरू कर दिए. लेकिन कुछ लोगों को इससे दिक्कत होनी लगी जिसके बाद FA ने एक नया नियम पास किया. इस नियम के तहत खिलाड़ियों को अपना घुटना कवर करना होता था.

 

नियम जिससे बदली फुटबॉल जर्सी
ऑन फील्ड रंग को लेकर तकरार न हो इसके लिए क्लब्स ने खुद के डिजाइन और रंग को लेकर रजिस्टर करना शुरू कर दिया. यहां रजिस्ट्रेशन के दौरान ये बात लिखी जाती थी कि हमारी टीम इस रंग की जर्सी, मोजे और डिजाइन पहनेगी. वहीं गोलकीपर्स को टीम की जर्सी से अलग रंग का पहनना होता था. इसमें ब्लू और व्हाइट शामिल था. बाद में इसमें ग्रीन को भी जोड़ दिया गया. इसके बाद साल 1921 में गोलकीपर को पीले रंग की जर्सी पहनने के लिए कह दिया गया. वहीं रेफरी और लाइनमैन को भी अलग अलग जर्सी पहनने के लिए कहा गया था. टीम की अवे जर्सी अलग होती थी. इसके अलावा अगर किसी मौके पर दोनों टीमों की जर्सी एक समान होती थी तो अवे टीम को अपनी जर्सी में एक और स्ट्रीप जोड़ना पड़ता था.

 

20वीं सदी
20वीं सदी तक फुटबॉल की मशहूरता काफी ज्यादा हो गई. खेल के साथ उद्दोग भी बढ़ता चला गया था. इस दौरान खेल बदला और खिलाड़ी भी फिट होने लगे. खिलाड़ी अब ज्यादा क्रिएटिव और टेक्निकल होने लगे. बढ़ती प्रतियोगिता और विरोधी टीम को हराने के मकसद से अलग अलग एक्विपमेंट भी आने लगे. टेक्नोलॉजी और फैशन को देखते हुए रेपलिका किट्स और स्पॉन्सरशिप से रेवेन्यू भी आने लगे. इस दौरान ही फुटबॉल किट में सबसे ज्यादा बदलाव देखने को मिला.

 

अब लाइटवेट, सिंथेटिक फैब्रिक वाले किट ने भारी मटेरियल को रिप्लेस कर दिया था. हाफ पैंट और ज्यादा छोटे हो गए थे. वहीं अलग अलग देश और क्लब्स के खिलाड़ी ढेर सारे रंगों में नजर आ रहे थे. खिलाड़ियों ने अब अपने नाम और नंबर की जर्सी पहननी शुरू कर दी थी. अलग अलग खिलाड़ियों को स्पॉन्सर मिलने शुरू हो गए थे और फैंस ने इन खिलाड़ियों की जर्सी खरीदनी शुरू कर दी थी.

 

पोलिएस्टर की एंट्री
फुटबॉल की जर्सी में अब टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल होने लगा था. खिलाड़ियों की बॉडी को देखकर जर्सी तैयार की जाती थी. इस दौरान पोलिएस्टर का चलन आ गया था. इस तरह की जर्सी में खिलाड़ियों के ज्यादा पसीने नहीं निकलते थे. वहीं बारिश के दौरान भी ये जर्सी ज्यादा गीली नहीं होती थीं. इन जर्सी को उमस सुखाने वाले पोलिएस्टर के फैब्रिक से बनाया जाता था. इसमें क्लाइमालाइट, ड्राइ फिट, क्लामाकूल जैसे सिस्टम्स आते हैं. इनकी वजह से खिलाड़ियों की जर्सी हमेशा सूखी रहती है और मैच के दौरान बेहद आरामदायक महसूस करवाती है.

 

गेम चेंजर
फुटबॉल की जर्सी अब लेटेस्ट टेक्नोलॉजी, बेस्ट मटेरियल की मदद से बनाई जा रही है. एक किट खिलाड़ी को काफी ज्यादा सपोर्ट करती है. लेकिन यही किट्स अब क्लब और फुटबॉल खिलाड़ियों को स्पॉन्सर दिलाने में भी मदद कर रही है. फुटबॉल अब ग्लोबल इंडस्ट्री का रूप ले चुका है. खेल का ज्यादातर रेवेन्यू किट से जनरेट होता है. स्पॉन्सरशिप की बदौलत ही कई स्पोर्टस ब्रैंड्स लाखों खिलाड़ी और फैंस तक पहुंच पा रहे हैं. वहीं मैन्युफैक्चरर और डिजाइनर्स भी अलग अलग तरह की जर्सी बना रहे हैं. यानी की 100 साल में एक जर्सी सीधे ऊनी कपड़ों, फुल पैंट, भारी जूतों और बड़े बड़े मोजों से एक अलग ही रूप में आ गई है.